BA Semester-3 Sociology - Hindi book by - Saral Prshnottar Group - बीए सेमेस्टर-3 समाजशास्त्र - सरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-3 समाजशास्त्र

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :180
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2651
आईएसबीएन :0

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बीए सेमेस्टर-3 समाजशास्त्र

अध्याय - 6

सामाजिक आन्दोलन और सामाजिक परिवर्तन : सामाजिक आन्दोलन के सिद्धान्त
संरचनात्मक- कार्यात्मक, मार्क्सवादी एवं संसाधन संघटन सिद्धान्त

(Social Movement and Social Change: Theories of Social Movement -
Structural- Functional, Marxist and Resource Mobilization Theory)

 

प्रश्न- सामाजिक आन्दोलन के विभिन्न सिद्धान्तों का सविस्तार वर्णन कीजिए।

अथवा
भारतीय सन्दर्भ में सामाजिक आन्दोलनों के सिद्धान्तों का वर्णन कीजिए।

उत्तर -

सामाजिक आन्दोलनों के सिद्धान्त - सामाजिक आन्दोलनों के सम्बन्ध में मुख्यतः दो बातें अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं -

(1) स्वदेशी सामाजिक आन्दोलनों के सिद्धान्त और वैचारिकी।
(2) विदेशी सामाजिक आन्दोलनों के सिद्धान्त और वैचारिकी।

(1) स्वदेशी सामाजिक आन्दोलनों के सिद्धान्त और वैचारिकी (Theory and Ideology of Indian Social Movements) - 13वीं से लेकर 16वीं शताब्दी तक भारत में एक द्वन्द्वात्मक की स्थिति थी जिसमें उच्चवर्गीय जाति प्रथा के विरुद्ध आक्रोश और विद्रोह दोनों ही उबाल पर थे। समाज में ब्राह्मणों के उच्च स्थान और उनके प्रभुत्व को लेकर विचार मन्थन आरम्भ हो गया था। दुःखी, पीड़ित, शोषित, प्रताड़ित निम्न जाति के व्यक्ति पशु सा जीवन व्यतीत कर रहे थे। इस प्रकार की परिस्थिति में रामानुजाचार्य अपने नये सामाजिक दर्शन के साथ अवतरित हुए। वे अपने विचारों से जाति प्रथा में आमूल- चूल परिवर्तन लाना चाहते थे। उनके क्रान्तिकारी विचार शूद्रों की स्थिति में परिवर्तन लाना चाहते थे। उन्होंने ब्राह्मैतर लोगों को मन्दिर में अराधना करने का अधिकार देकर एक नूतन स्वतन्त्र धार्मिक चेतना के सिद्धान्त की स्थापना की। इस धार्मिक विचार का प्रचार-प्रसार और प्रयोग होने लगा। यह धार्मिक आधार पर आधारित वैचारिकी जन-जीवन का स्वतः हिस्सा बन गयी। इसी क्रम में रामानन्द धर्म के बाह्य आडम्बर और संस्कार के विरोधी थे। उन्होंने एक व्यावहारिक सिद्धान्त की स्थापना की कि सभी व्यक्ति एक ही ईश्वर के अंश हैं, फिर परस्पर कटुता, द्वेष, घृणा, ऊँच-नीच की भावना आदि क्यों? रामानन्द के इस वैचारिक सिद्धान्त ने भारत के परम्परात्मक ढाँचे में उथल-पुथल मचा दी। इसे सामाजिक आन्दोलन का महत्वपूर्ण तत्व कहा जा सकता है। इस आन्दोलन की पृष्ठभूमि में रामानन्द के व्यावहारिक जीवन का चिन्तन था। इस समय समाज विभिन्न जातियों के छोटे-बड़े खानों में विभाजित था। इस प्रथा और व्यवस्था के वे विरोधी थे।

कबीर के अवतरण के साथ सम्पूर्ण उत्तर भारत में सांस्कृतिक चेतना की लहर उत्पन्न हो गयी थी। यह कहा जाए कि 14वीं सदी से लेकर 17वीं सदी तक कबीर और तुलसी मंत्रदाता के रूप में अवतरित हुए। इनके विचारों ने समाज को एक नयी रोशनी दी। क्रांतिकारी कबीर ने अपनी वैचारिकी से हिन्दू-मुस्लिम समाज की कट्टरता, अन्धविश्वास, जड़ता, कूप- मन्डूकता आदि पर गहरा प्रहार किया।

कबीर को तो अपने युग का महान आलोचक कहा जाता है। उनकी सकारात्मक आलोचना जातिवाद और धार्मिक अन्धविश्वासों पर चोट करती है। समाज और व्यक्ति दोनों रूढ़ियों और धार्मिक कट्टरता के विरुद्ध खड़े होने के लिये छटपटाते हैं। यह छटपटाहट और चेतना कबीर के व्यावहारिक जीवन और अवलोकन की अनुभूति से जन्में थे। इसने सामाजिक आन्दोलन को एक मानवतावादी विचार दिया है। इसे कबीर का मानवतावादी वैचारिकी का सिद्धान्त भी कह सकते हैं जो आज भी जातिवादी रूढ़यों और अन्धविश्वासों के विरुद्ध खड़ा हुआ है।

नवजागरण आन्दोलन - सामाजिक सिद्धान्त - नवजागरण आन्दोलन के गर्भ में सामाजिक सुधार के बीज समाहित थे। नव जागरण का आन्दोलन वहीं आरम्भ हुआ जहाँ सामाजिक-सांस्कृतिक कुरीतियों के विरुद्ध संघर्ष और आन्दोलन का बिगुल बजा। भारत पर मुगलों और अंग्रेजों का शासन सैकड़ों वर्षों से रहा है इसलिए इसका समाज पर प्रभाव भी काफी पड़ा। इनके शासनकाल में अनेक सामाजिक कुरीतियाँ भी उत्पन्न हुईं जो समाज के लिए कलंक बन गयीं। जैसे पिछड़ापन, रूढ़िवादिता, अन्धविश्वास, ढोंगी प्रथायें, अशिक्षा आदि। ये सामाजिक बुराइयाँ किसी भी समाज को आगे बढ़ने के बजाए पीछे ढकेलती हैं। इसी समय पश्चिम के उदारवादी विचारों का भी भारतीय समाज पर प्रभाव पड़ रहा था। इन परिस्थितियों में राजाराम मोहनराय का जन्म हुआ।

राजा राममोहनराय पाश्चात्य शिक्षा में दीक्षित थे। वे भारत के पिछड़ेपन को जानते थे। उनका कहना था कि भारत में जब तक अंग्रेजी शिक्षा का प्रचार व प्रसार नहीं होगा, भारत उन्नति नहीं कर सकता। उन्होंने अंग्रेजी शिक्षा का जहाँ समर्थन किया वहीं समाज में व्याप्त कुरीतियों का डटकर विरोध भी किया। जैसे सती प्रथा, बाल-विवाह, मूर्ति पूजा, बहु-पत्नी प्रथा आदि। राजा जी ने अपने विचारों और कार्यों से सामाजिक आन्दोलन की एक नयी जमीन तैयार की। इसीलिये उनके नेतृत्व में धार्मिक अन्धविश्वास के विरुद्ध आन्दोलन किये गये। सती प्रथा, बाल विवाह को कानूनी रूप से समाप्त किया गया। समाज के एक बड़े वर्ग में यह भावना घर करने लगी कि जड़वादी धार्मिक व्यवस्था को बदलना आवश्यक है। अन्ततः पुनर्जागरण आन्दोलन का एक व्यावहारिक प्रकार्यात्मक सिद्धान्त का आधार बना और "ब्रह्म समाज" राजा जी की वैचारिकी को आधार बनाकर आन्दोलन करता रहा।

नवजागरण आन्दोलन के दूसरे महत्वपूर्ण स्तम्भ स्वामी विवेकानन्द सरस्वती थे। दयानन्द जी का युग हिन्दू धर्म के लिहाज से पतन का युग था। इस समय वैदिक ज्ञान व संस्कृति का पतन हो रहा था। वैदिक संस्कृति का पतन केवल ब्रह्म समाजियों के द्वारा ही नहीं हो रहा था, बल्कि अंग्रेज शासक भी इस कार्य में लगे हुए थे। स्वामी जी ने वेदों के ज्ञान के स्रोतों पर विचार प्रकट किये। वास्तव में, वे हिन्दू नहीं वरन् वैदिक धर्म के पुनरुत्थान के प्रतिपादक थे। स्वामी जी को यह आभास हो गया था कि यदि भारतीयों ने विदेशी संस्कृति को ग्रहण कर लिया तो स्वदेशी और राष्ट्रीय भावना समाप्त हो जायेगी। स्वामी जी हिन्दू पुनरुत्थानवाद के रूप में प्रकट हुए। उन्होंने वैदिक आदर्शवाद और कर्म की प्रेरणा दी। देश, संस्कृति, आदर्श, मूल्य, वेद, धर्म के अनुपालन में ही सुरक्षित रह सकता है। वे धार्मिक अन्धविश्वासों के विरोधी थे। वे मूर्ति पूजा, तीर्थ, व्रत, तीर्थ स्थानों के भी आलोचक थे। वे कहते थे कि व्रत और उपवास में शरीर को कष्ट देना मूर्खतापूर्ण है। ढोंगी ब्राह्मणों ने प्रत्येक व्रत के साथ विचित्र बातें जोड़ दीं, जैसे- कार्तिक स्वामी की षष्टी, गणेश चतुर्थी, पितरों की अमावस्या आदि दिन उपवास के हैं।

वास्तव में स्वामी दयानन्द सरस्वती व्यक्तियों के चरित्र का निर्माण वैदिक आदर्शों के आधार पर करना चाहते थे। वैदिक धर्म में आस्था होने से व्यक्ति में नैतिकता, परोपकार, देशभक्ति, निर्भीकता, चिन्तनशीलता आदि विशेषतायें उत्पन्न होती हैं। वेदों के ज्ञान को स्थापित करने हेतु आर्य समाज की स्थापना की गयीं। एक दिन स्वामी जी के गुरू विरजानन्द ने कहा "तुमने ज्ञान प्राप्त कर लिया है, जाओ उसका प्रचार करो, मत-मतांतरों की अविद्या को मिटाओ तथा वैदिक धर्म को फैलाओ।' स्वामी जी ने "सत्यार्थ प्रकाश" पुस्तक को प्रकाशित किया। इसे "आर्य समाज" की आत्मा कहा जाता है। स्वामी जी ने वैदिक धर्म को जीवन में उतारने हेतु एक सशक्त वैचारिकी दी। वैदिक धार्मिक आन्दोलन को "आर्य समाज" और "सत्यार्थ प्रकाश' के माध्यम से एक वैदिक धार्मिक आधार प्रदान किया गया। इस आन्दोलन का लक्ष्य था कि जन-समुदाय वेद ज्ञान की ओर वापस लौटे जिसे प्रत्यावर्तन भी कहा जाता है। आज भी "आर्य समाज वैदिक धर्म के प्रचार और प्रसार में लगा हुआ है। वैदिक ज्ञान और धर्म सामाजिक- सांस्कृतिक आन्दोलन का सशक्त आधार बना।

रामकृष्ण परमहंस का आध्यात्मिक चिन्तन वैचारिकी और मानवतावादी दर्शन पूर्व के विचारकों से बहुत कुछ भिन्न है। उनका मत है कि व्यक्ति समाज की इकाई है। उसे मानव प्रेमी होना चाहिए फिर व्यक्ति-व्यक्ति में दूरी, अलगाव, भेद, मतभेद, द्वेष और घृणा कैसी? सामाजिक आन्दोलन की ऐसी सशक्त वैचारिकी और क्या हो सकती है? एक ऐसा परमहंस का फलसफा जो व्यक्ति को सारे मतभेद त्यागने की प्रेरणा देता है। उनका आध्यात्मिक चिन्तन मानवतावादी सौहार्द और एकता का दर्शन है। उदाहरण- उनका कहना था कि मनुष्य मनुष्य में कोई भेद नहीं, इस शिक्षा को समझाने का उनका ढंग यह था कि मनुष्य मानो केवल तकिये के गिलाफ हैं, गिलाफ जैसे भिन्न-भिन्न रंग और आकार के होते हैं वैसे ही मनुष्य भी कोई सुरूप, कोई कुरूप, कोई साधु, कोई दुष्ट होता है, बस इतना ही अन्तर होता है। पर जैसे सभी गिलाफों में एक ही पदार्थ कपास भरा होता है, वैसे ही सभी मनुष्यों में वही एक सच्चिदानन्द भरा हुआ है।' वे मानते थे कि सभी जाति और वर्ग के व्यक्ति समान हैं तो सभी धर्म भी समान हैं। धर्म बुद्धि की नहीं अनुभूति की वस्तु है, स्वधर्म ही श्रेयस्कर है। परमहंस जी के प्रिय और प्रतिभा सम्पन्न शिष्य विवेकानन्द थे। इन्होंने रामकृष्ण मिशन की स्थापना की। वास्तव में, मानव सेवा, मानव कल्याण और मानवतावाद के सिद्धान्त को लेकर रामकृष्ण परमहंस ने एक आध्यात्मिक सामाजिक आन्दोलन की नींव रखी। उनके विचार जहाँ सैद्धान्तिक दिखायी पड़ते हैं, वहीं व्यावहारिक भी। और जब जनता इनसे जुड़ गई तो एक सैद्धान्तिक सामाजिक आन्दोलन के सिद्धान्त की स्थापना हुई। यह वैचारिकी के क्रियान्वयन से भी सम्भव हुआ।

महात्मा गाँधी के विचारों, आन्दोलनों और समाज सुधार कार्यों के अभिन्न अंग थे- सत्य, अहिंसा, प्रेम। अहिंसा और सत्याग्रह आन्दोलन के अचूक अस्त्र हैं। संरक्षता के दर्शन के द्वारा वे पूँजीवादी व्यवस्था समाप्त करना चाहते थे, पर पूँजीपतियों को नहीं। गाँधी जी का सत्य, अहिंसा, प्रेम और सत्याग्रह का सिद्धान्त सामाजिक आन्दोलनों का आधार केवल भारत में ही नहीं वरन् विदेशों में भी अहिंसा के. हथियार को आन्दोलनों के लिए अपनाया गया।

जयप्रकाश नारायण ने सामाजिक आन्दोलन के लिए "सम्पूर्ण क्रान्ति" का सिद्धन्त दिया। समग्र सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक ढाँचे को बदलने के लिए उन्होंने "सम्पूर्ण क्रान्ति" का सिद्धान्त दिया। उनके अनुसार सात प्रकार की क्रान्तियों के मिलने से ही 'सम्पूर्ण क्रान्ति' का निर्माण होता है।

विनोबा भावे को भी 'भूदान आन्दोलन के सम्बन्ध में विशेष रूप से स्मरण किया जाता है। सन् 1951 में विनोबा जी तेलंगाना क्षेत्र में पद यात्रा कर रहे थे। वे नलकुण्डा जिले के पोचमपल्ली गाँव भी गये। इस गाँव में 3000 की जनसंख्या थी जिसमें 2000 भूमिहीन श्रमिक थे, शेष भू-स्वामी जमींदार थे। अपनी पदयात्रा के दौरान भू-स्वामियों से अनुरोध किया कि वे अपनी भूमि का कुछ भाग दान दे दें। इसमें भूमिहीन श्रमिकों की समस्या का समाधान छिपा था।

संक्षेप में हम कह सकते हैं कि सभी प्रकार के आन्दोलनों में एक दर्शन और वैचारिकी छिपी होती है जो व्यक्ति को आन्दोलन करने की प्रेरणा देती है और आन्दोलन के सिद्धान्त की स्थापना भी करती है।

(2) विदेशी सामाजिक आन्दोलनों के सिद्धान्त व वैचारिकी
(Theories and Ideology of Foreign Social Movement) -

कार्ल मार्क्स का वर्ग संघर्ष का सिद्धान्त - कार्ल मार्क्स एक समाजवादी विचारक हैं। विदेशी विचारधारा होने पर भी दुनिया के आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक बदलाव में वर्ग संघर्ष की अहम् भूमिका रही है। सभी सामाजिक आन्दोलनों की वैचारिकी और सिद्धान्त भारतीय जमीन से जुड़े हुए हैं। विदेशी विचारधारा होने पर भी इसने विद्वानों, समाज सेवकों और राजनीतिज्ञों को प्रभावित किया है। कार्ल मार्क्स का सम्पूर्ण सिद्धान्त और वैचारिकी उसके ऐतिहासिक भौतिकवाद और द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद पर आधारित है। वहाँ उत्पादन के साधन और अतिरिक्त मूल्य का सिद्धान्त केन्द्र में है। मार्क्स के अनुसार प्रत्येक युग में दो ही वर्ग रहते हैं पूँजीपति वर्ग, श्रमिक वर्ग मार्क्स की सम्पूर्ण वैचारिकी और सिद्धान्त ऐतिहासिक भौतिकवाद और द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद और वर्ग संघर्ष पर आधारित है। मार्क्स ने वर्ग संघर्ष के माध्यम से यह प्रमाणित करने का प्रयास किया है कि समाज में बदलाव और आन्दोलन वर्ग संघर्ष से ही उत्पन्न होते हैं। इस तरह उन्होंने एक समाजशास्त्रीय सामाजिक आन्दोलन के मौलिक सिद्धान्त की स्थापना की है, उसके वर्ग का आधार आर्थिक है। यह उत्पादन के साधनों पर आधारित है। उनके अनुसार, समाज में दो ही वर्ग होते हैं, एक वह जिसका उत्पादन के साधनों पर एकाधिकार होता है जिसे सामन्त, जमींदार और पूँजीपति के नाम से पुकारा जाता है। दूसरा श्रमिक वर्ग जो अपने श्रम को बेचकर जीविका चलाता है, पूँजीपति इनका शोषण करता रहता है। वह कहता है कि श्रम चाहे शारीरिक हो अथवा मानसिक वह श्रमिक वर्ग में आता है। मार्क्स एंजिल का प्रसिद्ध वाक्य है कि, "आज तक प्रत्येक समाज शोषक तथा शोषित वर्गों के विरोध पर आधारित रहा है।' श्रमिक वह वर्ग है जो उत्पादन करता है और सारा लाभ पूँजीपति हड़प कर जाता है। यही वह शोषण का बिन्दु है जहाँ से श्रमिकों में असन्तोष और आक्रोश पूँजीपति वर्ग के विरुद्ध उत्पन्न होता है। शोषित श्रमिक वर्ग अपनी शक्ति बढ़ाने हेतु अपना संगठन बनाते हैं जिससे वे पूँजीपति वर्ग से अपने हितों की लड़ाई अथवा संघर्ष कर सकें। दूसरी तरफ पूँजीपति सत्ता से मिलकर श्रमिकों को दबाने का प्रयास करता है किन्तु समय के साथ श्रमिक वर्ग की शक्ति बढ़ती जाती है, वे पूँजीपति के विरुद्ध आन्दोलन करते हैं। यह निरन्तर शोषण, अत्याचार, उत्पीड़न और अमानवीय व्यवहार के विरुद्ध संघर्ष करते रहते हैं, यह आज भी जारी है। इनके आन्दोलन में यह एक जुटता का नारा गूंजता है - "दुनिया के मजदूरों एक हो।'। आज भी वर्ग संघर्ष का आन्दोलन शोषण के विरुद्ध जारी है।

सामाजिक आन्दोलन के तीन अन्य सिद्धान्त

(1) सापेक्षिक वंचना का सिद्धान्त,
(2) तनाव सिद्धान्त,
(3) पुनर्निर्माण सिद्धान्त।

(1) सापेक्षिक वंचना का सिद्धान्त - सापेक्षिक वंचना के सिद्धान्त को दो भिन्न आधारों पर विकसित किया गया - सामाजिक गतिशीलता, सामाजिक संघर्ष।

इन्हें मर्टन और रून्सीमेन ने प्रयोग किया है। मर्टन ने इस सिद्धान्त का प्रयोग 1950 में और रूसीमेन ने 1966 में किया। यद्यपि इसे 1949 में अमेरिकन सिपाहियों के सन्दर्भ में प्रयोग किया गया था पर मर्टन ने इसे सही रूप में सन्दर्भ समूह के सन्दर्भ में प्रयोग किया है। मर्टन ने जहाँ इसे गतिशीलता का विश्लेषण करने में प्रयोग किया, वहीं रून्सीमेन ने इसे सन्दर्भ समूह, असमानता की समस्या और सामाजिक न्याय के सम्बन्ध में प्रयोग किया है। वास्तव में जब कोई व्यक्ति अथवा समूह किसी चीज को प्राप्त करने से वंचित रह जाता है तो इसे सापेक्षिक वंचना की संज्ञा दी जाती है। यह सिद्धान्त इस बात की व्याख्या करता है कि किस प्रकार समाज में अधिक से अधिक व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं और मांगों से वंचित रह जाते हैं जबकि दूसरे लोग नहीं। ऐसी सापेक्षिक स्थिति में सामाजिक आन्दोलन का उत्पन्न होना स्वाभाविक है। जैसे श्वेत प्रजातियों और नीग्रो प्रजातियों पर यह सिद्धान्त लागू होता है। भारत पर भी यह सिद्धान्त लागू होता है। भारत में एक ऐसा धनी वर्ग है जिसके पास जीवन की सभी सुविधायें उपलब्ध हैं, जबकि लगभग 50 करोड़ व्यक्तियों के पास जीने के लिए सामान्य सुविधायें भी उपलब्ध नहीं हैं। यहाँ सन्दर्भ समूह निर्धन को आन्दोलन करने हेतु प्रेरित करता है। यही कारण है कि आज अनुसूचित, दलित जनजातियों और दुर्बल वर्ग में सामाजिक आन्दोलन को सहज ही देखा जा सकता है।

(2) तनाव सिद्धान्त (Strain Theory) - 1962 में अमेरिकन समाजशास्त्री 'स्मेलसर' ने इस सिद्धान्त की स्थापना की। उनका मत है कि संरचनात्मक तनाव सामूहिक व्यवहार को प्रभावित करता है। संरचनात्मक तनाव विभिन्न प्रकार के मूल्यों, व्यवहार, प्रतिमान परिस्थितीय सुविधाओं के अनेक स्तरों में घटित होते हैं। जब कभी संरचनात्मक प्रभाव का सामान्यीकरण होता है, आन्दोलन की उपस्थिति होती है। विश्व के अनेक विकासशील और प्रगतिशील देशों में संरचनात्मक तनाव के अनेक स्वरूप देखे जा सकते हैं। भारत की संरचना में भी परम्परात्मक और आधुनिकता के मध्य तनाव को देखा जा सकता है। उदाहरण एक तरफ समाजवादी विचारधारा के लोग हैं तो दूसरी तरफ हिन्दूवादी व्यवस्था के पोषक और समर्थक हैं, और तीसरी तरफ पंथ निरपेक्ष व्यवस्था के भी पक्षधर हैं। इन तीनों के संरचनात्मक मूल्य और मान्यतायें भिन्न-भिन्न हैं। इन्हें लेकर इनमें तनाव भी होते हैं और आन्दोलन भी स्मेलसर का मत है कि आन्दोलन के तनाव का यह सिद्धान्त संरचनात्मक प्रकार्यात्मक सामाजिक प्रेम की देन है। इस सिद्धान्त के अनुसार जब समाज संक्रमणकालीन अवस्था में होता है तो व्यक्ति के मूल्य, विचार, मान्यतायें आदि टूटने लगती हैं। एक भ्रमित बदलाव की स्थिति होती है। इस बदली हुई संरचनात्मक व्यवस्था में सापेक्षित तनाव का उत्पन्न होना स्वाभाविक है। यह तनाव सामाजिक आन्दोलन को प्रोत्साहित करता है।

(3) पुनर्निर्माण का सिद्धान्त (Revitalization Theory) - 1956 में वालेश ने पुनर्निर्माण के सिद्धान्त के सम्बन्ध में कहा था कि समाज के व्यक्तियों द्वारा आन्दोलन जानबूझकर व्यवस्थित ढंग से और जागरूक प्रयासों से इसलिये किया जाता है कि एक सन्तोषप्रद संस्कृति का पुनर्निर्माण हो सके। वालेश पुनर्निर्माण आन्दोलन के मुख्य चार चरण बताते हैं

(1) सांस्कृतिक स्थिरता का काल
(2) वह काल जिसमें व्यक्तियों के तनाव में वृद्धि होती है,
(3) संस्कृति के विघटन का काल
(4) पुनर्निर्माण का काल।

व्यक्ति जब वर्तमान व्यवस्था से सन्तुष्ट नहीं होते तो वे सामाजिक व्यवस्था के विरुद्ध खड़े होते हैं। वे व्याख्या के अनुरूप एक सकारात्मक कार्यक्रम प्रस्तुत करते हैं। वालेश का यह सिद्धान्त भारत में भी लागू होता है। यहाँ विभिन्न राजनीतिक दल, समाज सेवी संस्थाएँ, विभिन्न प्रकार की वैचारिकी के आधार पर आन्दोलन होते हैं। कभी सम्पूर्ण क्रान्ति के द्वारा पुनर्निर्माण की बात कही जाती है और कभी 'सर्वोदय समाज'। आज भूमण्डलीकरण के द्वारा आर्थिक-सामाजिक पुनर्निर्माण की बात कही जा रही है।

उपर्युक्त सभी सिद्धान्त सामाजिक आन्दोलन के प्रेरक या सहायक हैं। आन्दोलन किसी एक तथ्य से प्रभावित होकर नहीं घटित होते हैं। सापेक्षिक वंचना और तनाव का सिद्धान्त सामाजिक आन्दोलन के पोषक तत्व हो सकते हैं पर सब कुछ नहीं। जैसे- भारत के स्वतन्त्रता आन्दोलन में कोई एक तत्व प्रभावी नहीं था बल्कि अनेक तत्व एक साथ मिल गये थे जिसके परिणामस्वरूप एक दीर्घकालीन स्वतन्त्रता आन्दोलन का संघर्ष चला। किसी एक तत्व से किसी वस्तु को प्राप्त करने से वंचित रह जाना सामाजिक आन्दोलन का कारण नहीं बनता है। यदि देश के अधिकांश व्यक्ति भूखे, बेघर, बेरोजगार और संकटग्रस्त हैं तो निश्चय ही सापेक्षिक वंचना का सिद्धान्त प्रभावी हो सकता है। आधुनिक समाज में तनाव समाज की एक विशेषता बन चुका है। छोटे बड़े वर्ग के व्यक्ति, धनी - निर्धन, व्यवसायी आदि सभी तनाव ग्रस्त हैं। तनाव के स्तर भी अलग-अलग हैं पर सामाजिक आन्दोलन इसके आधार पर नहीं हो रहे हैं। वास्तविकता यह है कि किसी समय कोई समस्या किसी क्षेत्र विशेष के लिये इतनी गम्भीर बन जाती है कि क्षेत्रीय व्यक्तियों का सैलाब आन्दोलन करने के लिये खड़ा हो जाता है और कालान्तर में सब जगह फैल जाता है, जैसे- पर्यावरणीय चिपको आन्दोलन।

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन का क्या अर्थ है? सामाजिक परिवर्तन के प्रमुख कारकों का उल्लेख कीजिए।
  2. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन के भौगोलिक कारक की विवेचना कीजिए।
  3. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन के जैवकीय कारक की विवेचना कीजिए।
  4. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन के जनसंख्यात्मक कारक की विवेचना कीजिए।
  5. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन के राजनैतिक तथा सेना सम्बन्धी कारक की विवेचना कीजिए।
  6. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन में महापुरुषों की भूमिका स्पष्ट कीजिए।
  7. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन के प्रौद्योगिकीय कारक की विवेचना कीजिए।
  8. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन के आर्थिक कारक की विवेचना कीजिए।
  9. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन के विचाराधारा सम्बन्धी कारक की विवेचना कीजिए।
  10. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन के सांस्कृतिक कारक की विवेचना कीजिए।
  11. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन के मनोवैज्ञानिक कारक की विवेचना कीजिए।
  12. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन की परिभाषा बताते हुए इसकी विशेषताएं लिखिए।
  13. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन की विशेषतायें बताइये।
  14. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन की प्रमुख प्रक्रियायें बताइये तथा सामाजिक परिवर्तन के कारणों (कारकों) का वर्णन कीजिए।
  15. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन में जैविकीय कारकों की भूमिका का मूल्यांकन कीजिए।
  16. प्रश्न- माल्थस के सिद्धान्त का वर्णन कीजिए।
  17. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन के प्राकृतिक कारकों का वर्णन कीजिए। सामाजिक परिवर्तन के जनसंख्यात्मक कारकों व प्रणिशास्त्रीय कारकों का वर्णन कीजिए।
  18. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन के जनसंख्यात्मक कारकों का वर्णन कीजिए।
  19. प्रश्न- प्राणिशास्त्रीय कारक और सामाजिक परिवर्तन की व्याख्या कीजिए।
  20. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन में जनसंख्यात्मक कारक के महत्व की समीक्षा कीजिए।
  21. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन के आर्थिक कारक बताइये तथा आर्थिक कारकों के आधार पर मार्क्स के विचार प्रकट कीजिए?
  22. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन में आर्थिक कारकों से सम्बन्धित अन्य कारणों को स्पष्ट कीजिए।
  23. प्रश्न- आर्थिक कारकों पर मार्क्स के विचार प्रस्तुत कीजिए।
  24. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन में प्रौद्योगिकीय कारकों की भूमिका की विवेचना कीजिए।
  25. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन के सांस्कृतिक कारकों का वर्णन कीजिए। सांस्कृतिक विलम्बना या पश्चायन (Cultural Lag) के सिद्धान्त का वर्णन कीजिए।
  26. प्रश्न- सांस्कृतिक विलम्बना या पश्चायन का सिद्धान्त प्रस्तुत कीजिए।
  27. प्रश्न- सामाजिक संरचना के विकास में सहायक तथा अवरोधक तत्त्वों को वर्णन कीजिए।
  28. प्रश्न- सामाजिक संरचना के विकास में असहायक तत्त्वों का वर्णन कीजिए।
  29. प्रश्न- केन्द्र एवं परिरेखा के मध्य सम्बन्ध की विवेचना कीजिए।
  30. प्रश्न- प्रौद्योगिकी ने पारिवारिक जीवन को किस प्रकार प्रभावित व परिवर्तित किया है?
  31. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन के विभिन्न स्वरूपों का वर्णन कीजिए।
  32. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन में सूचना प्रौद्योगिकी की क्या भूमिका है?
  33. प्रश्न- निम्नलिखित पुस्तकों के लेखकों के नाम लिखिए- (अ) आधुनिक भारत में सामाजिक परिवर्तन (ब) समाज
  34. प्रश्न- सूचना प्रौद्योगिकी एवं विकास के मध्य सम्बन्ध की विवेचना कीजिए।
  35. प्रश्न- सूचना तंत्र क्रान्ति के सामाजिक परिणामों की व्याख्या कीजिए।
  36. प्रश्न- जैविकीय कारक का अर्थ बताइये।
  37. प्रश्न- सामाजिक तथा सांस्कृतिक परिवर्तन में अन्तर बताइए।
  38. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन के 'प्रौद्योगिकीय कारक पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  39. प्रश्न- जनसंचार के प्रमुख माध्यम बताइये।
  40. प्रश्न- सूचना प्रौद्योगिकी की सामाजिक परिवर्तन में भूमिका बताइये।
  41. प्रश्न- सूचना प्रौद्योगिकी क्या है?
  42. प्रश्न- सामाजिक उद्विकास से आप क्या समझते हैं? सामाजिक उद्विकास के विभिन्न स्तरों का वर्णन कीजिए।
  43. प्रश्न- सामाजिक उद्विकास के विभिन्न स्तरों का वर्णन कीजिए।
  44. प्रश्न- भारत में सामाजिक उद्विकास के कारकों का वर्णन कीजिए।
  45. प्रश्न- भारत में सामाजिक विकास से सम्बन्धित नीतियों का संचालन कैसे होता है?
  46. प्रश्न- विकास के अर्थ तथा प्रकृति को स्पष्ट कीजिए। बॉटोमोर के विचारों को लिखिये।
  47. प्रश्न- विकास के आर्थिक मापदण्डों की चर्चा कीजिए।
  48. प्रश्न- सामाजिक विकास के आयामों की चर्चा कीजिए।
  49. प्रश्न- सामाजिक प्रगति से आप क्या समझते हैं? इसकी विशेषताएँ लिखिए।
  50. प्रश्न- सामाजिक प्रगति की सहायक दशाएँ कौन-कौन सी हैं?
  51. प्रश्न- सामाजिक प्रगति के मापदण्ड क्या हैं?
  52. प्रश्न- निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए-
  53. प्रश्न- क्रान्ति से आप क्या समझते हैं? क्रान्ति के कारण तथा परिणामों / दुष्परिणामों की विवेचना कीजिए |
  54. प्रश्न- सामाजिक उद्विकास एवं प्रगति में अन्तर बताइये।
  55. प्रश्न- सामाजिक उद्विकास की अवधारणा की व्याख्या कीजिए।
  56. प्रश्न- विकास के उपागम बताइए।
  57. प्रश्न- भारतीय समाज मे विकास की सतत् प्रक्रिया पर अपने विचार प्रकट कीजिए।
  58. प्रश्न- मानव विकास क्या है?
  59. प्रश्न- सतत् विकास क्या है?
  60. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन के चक्रीय सिद्धान्त का वर्णन कीजिए।
  61. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन के रेखीय सिद्धान्त का वर्णन कीजिए।
  62. प्रश्न- वेबलन के सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
  63. प्रश्न- मार्क्स के सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्त का उल्लेख कीजिए।
  64. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन क्या है? सामाजिक परिवर्तन के चक्रीय तथा रेखीय सिद्धान्तों में अन्तर स्पष्ट कीजिये।
  65. प्रश्न- सांस्कृतिक विलम्बना के सिद्धान्त की समीक्षा कीजिये।
  66. प्रश्न- सांस्कृतिक विलम्बना के सिद्धान्त की आलोचना कीजिए।
  67. प्रश्न- अभिजात वर्ग के परिभ्रमण की अवधारणा क्या है?
  68. प्रश्न- विलफ्रेडे परेटो द्वारा सामाजिक परिवर्तन के चक्रीय सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
  69. प्रश्न- माल्थस के जनसंख्यात्मक सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
  70. प्रश्न- आर्थिक निर्णायकवादी सिद्धान्त पर टिप्पणी लिखिए।
  71. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन का सोरोकिन का सिद्धान्त एवं उसके प्रमुख आधारों का वर्णन कीजिए।
  72. प्रश्न- ऑगबर्न के सांस्कृतिक विलम्बना के सिद्धान्त का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
  73. प्रश्न- चेतनात्मक (इन्द्रियपरक ) एवं भावात्मक ( विचारात्मक) संस्कृतियों में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  74. प्रश्न- सैडलर के जनसंख्यात्मक सिद्धान्त पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  75. प्रश्न- हरबर्ट स्पेन्सर का प्राकृतिक प्रवरण का सिद्धान्त क्या है?
  76. प्रश्न- संस्कृतिकरण का अर्थ बताइये तथा संस्कृतिकरण में सहायक अवस्थाओं का वर्गीकरण कीजिए व संस्कृतिकरण की प्रक्रिया का वर्णन कीजिए।
  77. प्रश्न- संस्कृतिकरण की प्रक्रिया का वर्णन कीजिए।
  78. प्रश्न- संस्कृतिकरण की प्रमुख विशेषतायें बताइये। संस्कृतिकरण के साधन तथा भारत में संस्कृतिकरण के कारण उत्पन्न हुए सामाजिक परिवर्तनों का वर्णन करते हुए संस्कृतिकरण की संकल्पना के दोष बताइये।
  79. प्रश्न- भारत में संस्कृतिकरण के कारण होने वाले परिवर्तनों के विषय में बताइये।
  80. प्रश्न- संस्कृतिकरण की संकल्पना के दोष बताइये।
  81. प्रश्न- पश्चिमीकरण का अर्थ एवं परिभाषायें बताइये। पश्चिमीकरण की प्रमुख विशेषता बताइये तथा पश्चिमीकरण के लक्षण व परिणामों की विवेचना कीजिए।
  82. प्रश्न- पश्चिमीकरण के लक्षण व परिणाम बताइये।
  83. प्रश्न- पश्चिमीकरण ने भारतीय ग्रामीण समाज के किन क्षेत्रों को प्रभावित किया है?
  84. प्रश्न- आधुनिक भारत में सामाजिक परिवर्तन में संस्कृतिकरण एवं पश्चिमीकरण के योगदान का वर्णन कीजिए।
  85. प्रश्न- संस्कृतिकरण में सहायक कारक बताइये।
  86. प्रश्न- समकालीन युग में संस्कृतिकरण की प्रक्रिया का स्वरूप स्पष्ट कीजिए।
  87. प्रश्न- पश्चिमीकरण सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया के रूप में स्पष्ट कीजिए।
  88. प्रश्न- जातीय संरचना में परिवर्तन किस प्रकार से होता है?
  89. प्रश्न- स्त्रियों की स्थिति में क्या-क्या परिवर्त हुए हैं?
  90. प्रश्न- विवाह की संस्था में क्या परिवर्तन हुए स्पष्ट कीजिए?
  91. प्रश्न- परिवार की स्थिति में होने वाले परिवर्तनों का वर्णन कीजिए।
  92. प्रश्न- सामाजिक रीति-रिवाजों में क्या परिवर्तन हुए वर्णन कीजिए?
  93. प्रश्न- अन्य क्षेत्रों में होने वाले परिवर्तनों की व्याख्या कीजिए।
  94. प्रश्न- आधुनिकीकरण के सम्बन्ध में विभिन्न समाजशास्त्रियों के विचार प्रकट कीजिए।
  95. प्रश्न- भारत में आधुनिकीकरण के मार्ग में आने वाली प्रमुख बाधाओं की व्याख्या कीजिए।
  96. प्रश्न- आधुनिकीकरण को परिभाषित करते हुए विभिन्न विद्वानों के अनुसार आधुनिकीकरण के तत्वों का वर्णन कीजिए।
  97. प्रश्न- डा. एम. एन. श्रीनिवास के अनुसार आधुनिकीकरण के तत्वों को बताइए।
  98. प्रश्न- डेनियल लर्नर के अनुसार आधुनिकीकरण की विशेषताओं को बताइए।
  99. प्रश्न- आइजनस्टैड के अनुसार, आधुनिकीकरण के तत्वों को समझाइये।
  100. प्रश्न- डा. योगेन्द्र सिंह के अनुसार आधुनिकीकरण के तत्वों को समझाइए।
  101. प्रश्न- ए. आर. देसाई के अनुसार आधुनिकीकरण के तत्वों को व्यक्त कीजिए।
  102. प्रश्न- आधुनिकीकरण का अर्थ तथा परिभाषा बताइये? भारत में आधुनिकीकरण के लक्षण बताइये।
  103. प्रश्न- आधुनिकीकरण के प्रमुख लक्षण बताइये।
  104. प्रश्न- भारतीय समाज पर आधुनिकीकरण के प्रभाव की व्याख्या कीजिए।
  105. प्रश्न- लौकिकीकरण का अर्थ, परिभाषा व तत्व बताइये। लौकिकीकरण के कारण तथा प्रभावों का वर्णन कीजिए।
  106. प्रश्न- लौकिकीकरण के प्रमुख कारण बताइये।
  107. प्रश्न- धर्मनिरपेक्षता क्या है? धर्मनिरपेक्षता के मुख्य कारकों का वर्णन कीजिये।
  108. प्रश्न- वैश्वीकरण क्या है? वैश्वीकरण की सामाजिक सांस्कृतिक प्रतिक्रिया की व्याख्या कीजिए।
  109. प्रश्न- भारत पर वैश्वीकरण और उदारीकरण के सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक व्यवस्था पर प्रभावों का वर्णन कीजिए।
  110. प्रश्न- भारत में वैश्वीकरण की कौन-कौन सी चुनौतियाँ हैं? वर्णन कीजिए।
  111. प्रश्न- निम्नलिखित शीर्षकों पर टिप्पणी लिखिये - 1. वैश्वीकरण और कल्याणकारी राज्य, 2. वैश्वीकरण पर तर्क-वितर्क, 3. वैश्वीकरण की विशेषताएँ।
  112. प्रश्न- निम्नलिखित शीर्षकों पर टिप्पणी लिखिये - 1. संकीर्णता / संकीर्णीकरण / स्थानीयकरण 2. सार्वभौमिकरण।
  113. प्रश्न- संस्कृतिकरण के कारकों का वर्णन कीजिये।
  114. प्रश्न- भारत में आधुनिकीकरण के किन्हीं दो दुष्परिणामों की विवचेना कीजिए।
  115. प्रश्न- आधुनिकता एवं आधुनिकीकरण में अन्तर बताइए।
  116. प्रश्न- एक प्रक्रिया के रूप में आधुनिकीकरण की विशेषताएँ लिखिए।
  117. प्रश्न- आधुनिकीकरण की हालवर्न तथा पाई की परिभाषा दीजिए।
  118. प्रश्न- भारत में आधुनिकीकरण की व्याख्या कीजिए।
  119. प्रश्न- भारत में आधुनिकीकरण के दुष्परिणाम बताइये।
  120. प्रश्न- सामाजिक आन्दोलन से आप क्या समझते हैं? सामाजिक आन्दोलन का अध्ययन किस-किस प्रकार से किया जा सकता है?
  121. प्रश्न- सामाजिक आन्दोलन का अध्ययन किस-किस प्रकार से किया जा सकता है?
  122. प्रश्न- सामाजिक आन्दोलन के गुणों की व्याख्या कीजिये।
  123. प्रश्न- सामाजिक आन्दोलन के सामाजिक आधार की विवेचना कीजिये।
  124. प्रश्न- सामाजिक आन्दोलन को परिभाषित कीजिये। भारत मे सामाजिक आन्दोलन के कारणों एवं परिणामों का वर्णन कीजिये।
  125. प्रश्न- "सामाजिक आन्दोलन और सामूहिक व्यवहार" के सम्बन्धों को समझाइये |
  126. प्रश्न- लोकतन्त्र में सामाजिक आन्दोलन की भूमिका को स्पष्ट कीजिये।
  127. प्रश्न- सामाजिक आन्दोलनों का एक उपयुक्त वर्गीकरण प्रस्तुत करिये। इसके लिये भारत में हुए समकालीन आन्दोलनों के उदाहरण दीजिये।
  128. प्रश्न- सामाजिक आन्दोलन के तत्व कौन-कौन से हैं?
  129. प्रश्न- सामाजिक आन्दोलन के विकास के चरण अथवा अवस्थाओं को बताइये।
  130. प्रश्न- सामाजिक आन्दोलन के उत्तरदायी कारणों पर प्रकाश डालिये।
  131. प्रश्न- सामाजिक आन्दोलन के विभिन्न सिद्धान्तों का सविस्तार वर्णन कीजिए।
  132. प्रश्न- "क्या विचारधारा किसी सामाजिक आन्दोलन का एक अत्यावश्यक अवयव है?" समझाइए।
  133. प्रश्न- सर्वोदय आन्दोलन पर टिप्पणी लिखिए।
  134. प्रश्न- सर्वोदय का प्रारम्भ कब से हुआ?
  135. प्रश्न- सर्वोदय के प्रमुख तत्त्व क्या है?
  136. प्रश्न- भारत में नक्सली आन्दोलन का मूल्यांकन कीजिए।
  137. प्रश्न- भारत में नक्सली आन्दोलन कब प्रारम्भ हुआ? इसके स्वरूपों का वर्णन कीजिए।
  138. प्रश्न- नक्सली आन्दोलन के प्रकोप पर प्रकाश डालिए।
  139. प्रश्न- नक्सली आन्दोलन की क्या-क्या माँगे हैं?
  140. प्रश्न- नक्सली आन्दोलन की विचारधारा कैसी है?
  141. प्रश्न- नक्सली आन्दोलन का नवीन प्रेरणा के स्रोत बताइये।
  142. प्रश्न- नक्सली आन्दोलन का राजनीतिक स्वरूप बताइये।
  143. प्रश्न- आतंकवाद के रूप में नक्सली आन्दोलन का वर्णन कीजिए।
  144. प्रश्न- भ्रष्टाचार के विरुद्ध आंदोलन पर एक निबन्ध लिखिए।
  145. प्रश्न- "प्रतिक्रियावादी आंदोलन" से आप क्या समझते हैं?
  146. प्रश्न - रेनांसा के सामाजिक सुधार पर प्रकाश डालिए।
  147. प्रश्न- 'सम्पूर्ण क्रान्ति' की संक्षेप में विवेचना कीजिए।
  148. प्रश्न- प्रतिक्रियावादी आन्दोलन से आप क्या समझते हैं?
  149. प्रश्न- सामाजिक आन्दोलन के संदर्भ में राजनीति की भूमिका स्पष्ट कीजिए।
  150. प्रश्न- भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में सरदार वल्लभ पटेल की भूमिका की संक्षेप में विवेचना कीजिए।
  151. प्रश्न- "प्रतिरोधी आन्दोलन" पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिये।
  152. प्रश्न- उत्तर प्रदेश के किसी एक कृषक आन्दोलन की विवेचना कीजिए।
  153. प्रश्न- कृषक आन्दोलन क्या है? भारत में किसी एक कृषक आन्दोलन की विवेचना कीजिये।
  154. प्रश्न- श्रम आन्दोलन की आधुनिक प्रवृत्तियों पर प्रकाश डालिए।
  155. प्रश्न- भारत में मजदूर आन्दोलन के उद्भव एवं विकास पर प्रकाश डालिए।
  156. प्रश्न- 'दलित आन्दोलन' के बारे में अम्बेडकर के विचारों की विश्लेषणात्मक व्याख्या कीजिए।
  157. प्रश्न- भारत में दलित आन्दोलन के लिये उत्तरदायी प्रमुख कारकों की विवेचना कीजिये।
  158. प्रश्न- महिला आन्दोलन से क्या तात्पर्य है? भारत में महिला आन्दोलन के लिये उत्तरदायी प्रमुख कारणों की विवेचना कीजिये।
  159. प्रश्न- पर्यावरण संरक्षण के लिए सामाजिक आन्दोलनों पर एक लेख लिखिये।
  160. प्रश्न- "पर्यावरणीय आंदोलन" के सामाजिक प्रभावों का उल्लेख कीजिए।
  161. प्रश्न- भारत में सामाजिक परिवर्तन पर एक संक्षिप्त टिप्पणी कीजिये। -
  162. प्रश्न- कृषक आन्दोलन के प्रमुख कारणों की व्याख्या कीजिए।
  163. प्रश्न- श्रम आन्दोलन के क्या कारण हैं?
  164. प्रश्न- 'दलित आन्दोलन' से आप क्या समझते हैं?
  165. प्रश्न- पर्यावरणीय आन्दोलनों के सामाजिक महत्त्व पर प्रकाश डालिए।
  166. प्रश्न- पर्यावरणीय आन्दोलन के सामाजिक प्रभाव क्या हैं?

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